किसी भी राष्ट्र की पहचान वहाँ की लोककला और संस्कृति के आधार पर किया जाता है। भारत प्रारंभ से ही संस्कृति प्रधान देश रहा है, लोकगीत एवं लोकनृत्य इसी संस्कृति का अभिन्न अंग है जो अनादिकाल से प्राकृतिक पर्यावरण में पुष्पित,पल्लवित एवं सौंदर्य बिखरेती रही है। जनजाति भारतीय समाज का महत्वपूर्ण अंग है जो उन्हें एक निराली छवि प्रदान करती है। प्रकृति से जुड़े होने के कारण उनकी समस्त क्रियायें अदभूत, विलक्षण और आकर्षक है। बस्तर क्षेत्र जनजातियों का समुच्चय हैं। यहाँ मुख्य रूप से गोंड़, हल्बा, भतरा, पारधी, मुरिया, माड़िया जनजाति पाये जाते है। जिनकी अपनी विशिष्ट प्रकार के नृत्य, गीत, कला, संस्कृति रहा है, जो अन्य समुदायों से अलग दिखाई पड़ता है। लोकगीत और लोकनृत्य जनजाति समाज का प्राणतत्व है जिनमें उस विशिष्ट जाति, समुदाय की विशिष्टता के बीज सुप्त रहता है। लोकगीतों एवं लोकनृत्यों के माध्यम से समाज में व्याप्त सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तत्वों, पर्व तथा प्रथाओं को स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है। उत्तर बस्तर कांकेर के जनजातीय समाज में जन्म संस्कार से लेकर मृत्यू संस्कार तक लोकगीत और लोकनृत्य की परम्परा का प्रचलन रहा है, लोकगीत और लोकनृत्य मात्र मनोरंजन और सौंदर्यबोध के परिचायक नहीं होते बल्कि व्यक्ति की सामाजिक, सूक्ष्म भावनाओं, उनके जीवन से जुड़े विभिन्न पक्षों तथा संबंधों को भी दर्शाते है। जनजातियों की धार्मिक विश्वास, तांत्रिक क्रियायें, टोटम (गोत्र-चिन्ह), पर्व, वाद्य यंत्र, लोकगीतों और लोकनृत्य प्रस्तुत करने के अवसर पर धारण किये जाने वाले आभूषण, परिधान श्रृंगार, बोली, भाषा, आभिचारिक क्रियायें, विशिष्ट जनजातियों की सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक क्षेत्र और आध्यात्मिक पहचान को अभिव्यक्त करती है।
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AUTHOR'S NAME | डॉ. बसंत नाग |
ISBN | 978-93-88998-16-1 |
EDITION | 2019 |
LANGUAGE | HINDI |
BINDING | HB |
SIZE | DEMY |
PAGES | 456 |
PUBLISHER | AKHAND PUBLISHING HOUSE |